Saturday, February 10, 2024

राहुल गांधी बनाम कॉरपोरेट

*साल था 2010। उड़ीसा में "नियमागिरी" के पहाड़। जहां सरकार ने वेदांता ग्रुप को बॉक्साइट खनन करने के लिए जमीन दे दी।
आदिवासियों ने विरोध किया, आंदोलन किए। राहुल गांधी ने आदिवासियों का समर्थन किया और ये डील कैंसल करवा दी।
बस यहीं से वेदांता ग्रुप के मालिक अनिल अग्रवाल ने राहुल गांधी के खिलाफ पूरे कॉरपोरेट को इकट्ठा करना शुरू कर दिया।
*साल था 2011 कांग्रेस की सरकार थी, यूपी के भट्टा परसौल में यमुना एक्सप्रेस वे बन रहा था। किसानों की जमीन अधिग्रहण की जाने वाली थी, किसानों ने विरोध किया। और राजनीति में नए नए आए युवा राहुल गांधी किसानों से मिलने पहुंच गए।
राहुल ने किसानों का समर्थन किया और मनमोहन सिंह सरकार पर दबाव डालकर एक "भूमि अधिग्रहण" कानून बना दिया। उस कानून में लिखा था कि किसानों की जमीन ली जाएगी तो पहले पंचायत से उसकी परमिशन लेनी होगी। और उस जमीन का मार्केट से 4 गुना अधिक रेट देना होगा।
अब कॉर्पोरेट्स को जहां जहां किसानों की जमीन लेनी पड़ती थी तो मंहगी पड़ने लगी। (मोदी जी ने सरकार में आते ही सबसे बड़ा काम यही किया कि उस कानून को बदल दिया।)

यहां से पूरा कॉरपोरेट ही राहुल गांधी के खिलाफ हो गया। पूरा मीडिया राहुल के खिलाफ लगा दिया गया। जिस सीएजी की रिपोर्ट में थोड़ा सा सवाल उठने पर मीडिया घोटाले हुए घोटाले हुए चिल्लाता था वो सीएजी की रिपोर्ट आज की सरकार में बाहर भी नहीं आती है। कांग्रेस के समय के टू जी जैसे न जाने कितने घोटाले तो केवल रिपोर्ट में सस्पेंस के आधार पर बना दिए गए। जबकि असल में घोटाले होते तो कोई जेल में भी होता? मोदी सरकार आने के बाद कोई कांग्रेस का नेता जेल नहीं गया, जो एक दो घोटाले हुए भी थे उनको खुद कांग्रेस सरकार ने जेल भेजा था।
इनके बाद ही माहौल बना अन्ना हजारे आंदोलन का। जिसको कॉरपोरेट और आरएसएस ने भरपूर सहयोग किया। 
फिर 2013 में राहुल गांधी का पहला टीवी इंटरव्यू अर्णब गोस्वामी के साथ हुआ। अर्णब गोस्वामी कौन हैं आज सबको पता है , उसने राहुल गांधी को पूरे इंटरव्यू में उनके परिवार के बारे में पूछ पूछ कर सवाल किए। राहुल की छवि खराब करने की ये पहली कोशिश थी।
उसके बाद फेसबुक, ट्विटर और वाट्सअप भारत की जनता के हाथ में नया नया आया था। उसपर राहुल गांधी के खूब एडिटेड वीडियो ऑडियो और फोटो फेक न्यूज के साथ घूमे।
उसके भाषणों के 10-20 सेकंड के हिस्से काट काट कर खूब वायरल करके पप्पू साबित किया गया। खूब मजाक उड़ा, गाली दी गई, चरित्र हनन किया गया।
राहुल ने हार नहीं मानी और 2019 के चुनाव में अनिल अंबानी को राफेल डील मिलने के खिलाफ खुलकर बोले। आगे चलकर अनिल अंबानी की वो कंपनी दिवालिया हो गई।
खैर पुलवामा हमला हुआ और मोदी जी की बंपर जीत हुई।
मोदी सरकार ने सभी PSU की हिस्सेदारी अडानी को बेचनी चालू रखी और राहुल गांधी ने अडानी के खिलाफ आवाज उठाना बंद नहीं किया।
फिर 2024 का चुनाव आ गया है, सबको पता था कि बीजेपी राम मंदिर की लहर में चुनाव जीतने वाली है। फिर भी कॉर्पोरेट्स ने बीजेपी के पीछे हजारों करोड़ रुपए लगा दिए नीतीश कुमार, जयंत चौधरी, मायावती, एचडी देवगौड़ा को कांग्रेस के गठबंधन से निकलकर बीजेपी के साथ मिलने के लिए। कॉरपोरेट के कुछ लोग रिस्क नहीं लेना चाहते हैं। उनको पता है कि गलती से भी ये आदमी सरकार में आ गया तो समझिए इनका सब किया धरा मिट्टी में मिला देगा।
तो बस आप खुश रहिए, हम कांग्रेस को नहीं तो राहुल गांधी को सपोर्ट करते रहेंगे क्योंकि उसकी वजह से बची हुई देश की संपतियां कॉरपोरेट को देने से बच रहे हैं।
पता नहीं किस मिट्टी का बना है ये आदमी। इतने चुनाव हार कर भी भारत जोड़ो यात्रा कर रहा। कम से कम आप अब तो ये नहीं कह सकते कि राहुल गांधी जनता के बीच नहीं जाते। साउथ से नॉर्थ चल गया, ईस्ट से वेस्ट जा रहा। और क्या चाहिए जबकि पूरे मीडिया ने भारत जोड़ो यात्रा के कवरेज को बायकॉट कर रखा है। 
भरोसा रखिए, पांच साल, दस साल, पंद्रह साल बाद भी ये आदमी सरकार में आ गया तो इन अडानी जैसे कॉर्पोरेट्स की एक एक लूट का हिसाब लेगा।
#RahulGandhi

Sunday, March 26, 2023

सवाल राहुल गांधी का नहीं, हिंदुस्तान की आजादी का है।

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की लोकसभा की सदस्यता छीन ली गई। उनका दोष यही था कि देश को चूना लगाकर भाग गए धोखेबाजों के नाम उन्होंने भरी सभा में पुकारे थे। देश के नामचीन चोरों को चोर कहना बड़ा भारी गुनाह साबित हुआ।
अब इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या राहुल गांधी अगले 8 वर्ष तक चुनाव लड़ पाएंगे या नहीं। इस बात की भी समीक्षा हो रही है कि अदालत का फैसला सही था या नहीं, लोकसभा सचिवालय को इतनी जल्दी क्या थी, सदस्यता समाप्त करने की।
लेकिन यह असली सवाल नहीं है। यह सवाल व्यक्ति राहुल गांधी तक सीमित है। यह सवाल उस प्रवृत्ति तक नहीं जाते जिसके केंद्र में राहुल गांधी नाम का व्यक्ति है।
उस प्रवृत्ति को समझने के लिए नए जमाने की तानाशाही और उसे लागू करने के अत्याधुनिक औजारों को गौर से देखना होगा। सारा खेल इस बात का है कि कोई भी तानाशाह, सत्ता हमेशा के लिए अपने हाथ में चाहता है। और उसके लिए हर वह हथकंडा अपनाता है जिससे उसकी सत्ता मजबूत होती है और हर उस संस्था को कमजोर या बर्बाद कर देता है जो उसके साथ सत्ता की हिस्सेदारी करना चाहती है।
भारत में सत्ता पाने का सीधा माध्यम चुनाव में जीत हासिल करना होता है। इसलिए सबसे पहले जरूरत होती है कि चुनाव को प्रभावित किया जाए या यूं कहें उसे अपने कब्जे में लिया जाए।
एक जटिल और बड़े समाज में किसी पार्टी के बारे में अपनी राय बनाने के लिए जनता बहुत हद तक मीडिया पर निर्भर होती है। इसलिए तानाशाह मीडिया को कुचल देता है या खरीद लेता है। और आगे चलकर वह मीडिया की परिभाषा ही बदल देता है और जयकारा लगाने वालों को ही लोग मीडिया समझने लगते हैं।
चुनाव प्रक्रिया का दूसरा महत्वपूर्ण अंग चुनाव आयोग होता है। कहने को आज भी देश में चुनाव आयोग स्वतंत्र संस्था है। लेकिन उसके अध्यक्षों की नियुक्ति, सत्ता पक्ष शासित राज्यों में उसके तौर-तरीकों में बदलाव और विपक्षी दलों के प्रति उसका रवैया उसकी स्वतंत्रता की हकीकत को खुद ही जगजाहिर कर देता है। पहले राज्य के चुनाव से पहले बड़े पैमाने पर पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों के तबादले करना निर्वाचन आयोग का एक प्रमुख कार्य बन गया था, अब यह कार्य अचानक ही कार्य सूची से बाहर जैसा महसूस होता है। विपक्ष की हर शिकायत को निर्वाचन आयोग इस तरह लेता है जैसे सत्ताधारी पार्टी की प्रतिक्रिया सुनाई दे रही हो। अगर एंपायर ही 2 टीमों में से एक टीम के बारे में ध्यान ना दे तो उसकी निष्पक्षता खुद-ब-खुद समझी जा सकती है।
अगर मीडिया और निर्वाचन आयोग की दीवार को पार करके कोई राजनीतिक दल सत्ताधारी पार्टी को हराकर सरकार बना लेता है तो केंद्रीय एजेंसियों के दबाव और उसके विधायकों की खरीद के संयुक्त अभियान से सरकार को गिराया जा सकता है। अगर यह भी संभव नहीं होता तो विपक्षी राज्य सरकार के मंत्रियों पर केंद्रीय जांच एजेंसियों को इस तरह बैठा दिया जाता है कि वह कोई काम ही ना कर सकें। अगर इतने से भी बात नहीं बनती तो विपक्ष के नेताओं को गैर जरूरी मुकदमों में फसाकर अयोग्य घोषित कराया जा सकता है।
यह सारे काम एकदम अलोकतांत्रिक होने के बावजूद कानून की तकनीकी परिभाषा के हिसाब से गैरकानूनी नहीं है।
अगर गौर से देखा जाए तो लोकतंत्र का दमन करने के लिए यही हथकंडे पूरे देश में अपनाए जा रहे हैं। राहुल गांधी ना तो इसका पहला शिकार हैं और ना ही आखरी। लालू प्रसाद यादव, स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव, बहन मायावती, मोहम्मद आजम खान, अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, हेमंत सोरेन, भूपेश बघेल, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, ओम प्रकाश चौटाला, महबूबा मुफ्ती, ओमर अब्दुल्लाह, केएसआर सब के ऊपर थोड़े बहुत अंतर से यही हथकंडे अपनाए गए हैं।
फर्क बस इतना है कि किसने अपना दामन किस हद तक बचा कर रखा है और उसकी राजनैतिक वजनदारी कितनी है। निश्चित तौर पर राहुल गांधी इन सभी नेताओं में सबसे ज्यादा वजनदार है। वे इनकम टैक्स से नहीं डरे, सीबीआई से नहीं डरे, ईडी की 60 घंटे तक चली पूछताछ से नहीं डरे, एसपीजी सुरक्षा हटाए जाने से नहीं डरे, उनके खिलाफ वर्षों से चलाए जा रहे दुष्प्रचार अभियान से नहीं डरे, देश के सबसे बड़े धन्ना सेठ की तिजोरी से नहीं डरे, और तानाशाह से आंख में आंख मिलाकर संसद और सड़क पर उसका कच्चा चिट्ठा खोलने से नहीं डरे। इसलिए उन्हें रास्ते से हटाने के लिए अतिरिक्त मेहनत की जा रही है।
लेकिन असल बात तानाशाही से संघर्ष की है। जब कोई तानाशाह गद्दी पर बैठता है, तो मीडिया, गोदी मीडिया बन जाता है, अदालत, कंगारू कोर्ट बन जाती है, संवैधानिक प्रक्रिया कांस्टीट्यूशनल हार्डबाल बन जाती हैं और पूरा लोकतांत्रिक ढांचा शरीर से लोकतांत्रिक दिखता है लेकिन उसकी प्रवृत्ति तानाशाही की हो जाती है। पुलिस चोर को नहीं पकड़ती, फरियादी को पकड़ती है। अदालत अपराधी को दंडित नहीं करती, फरियादी से सवाल करती है। न्याय की मूल भावना मर जाती है और प्रक्रिया ही कानून बन जाती है। जुल्म को न्याय की तरह प्रचारित किया जाता है। 
इसे आसानी से समझना हो तो अफगानिस्तान में अमेरिका समर्थित सरकार के समय जो लोग सरकार चलाते थे और तालिबान को आतंकवादी मानते थे अब तालिबान के हाथ में सरकार आने पर तालिबान एकदम पाक साफ है। पुलिस अदालत संसद सब तालिबान के हाथ में है, तो जाहिर है कि जो लोग लोकतांत्रिक कहलाते थे, अब वही लोग देशद्रोही और अपराधी हो जाएंगे।
भारत में भी दुर्भाग्य से सत्ता ऐसे व्यक्तियों के हाथ में आ गई है, जिनका आजादी की लड़ाई, संविधान और लोकतंत्र के निर्माण में कोई योगदान नहीं रहा। इसके उलट उनके मातृ संगठन पर तीन बार देश विरोधी गतिविधियों के कारण प्रतिबंध लगाया जा चुका है। दुनिया के प्रतिष्ठित समाचार पत्र आज भी उन्हें दक्षिणपंथी सांप्रदायिक संगठन ही लिखते हैं। उसके शीर्ष नेताओं को लंबे समय तक अमेरिका जाने का वीजा इसलिए नहीं मिला क्योंकि उनके ऊपर एक धर्म विशेष के खिलाफ सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के आरोप थे। एक अन्य नेता तड़ीपार हुआ करते थे। बाकी नेताओं ने भी समय-समय पर लोकतंत्र विरोधी और समाज में वैमनस्य फैलाने वाले बयान दिए हैं। ऐसे लोगों को पद्म सम्मान से अलंकृत करते हैं जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने अदालत से किया गया वादा ना निभाने के कारण सजा सुनाई थी। जिनके मात्र संगठन की मूल प्रतिज्ञाएं भारत के धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक संविधान के विपरीत हैं। जिसके नेता संसद में धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द को संविधान से हटाने की वकालत करते हैं। जिसके नेता राष्ट्रपिता के बारे में कूट रचित बातें फैलाने और अपमानजनक बातें कहने में गौरव महसूस करते हैं।
तो यह लड़ाई इस तरह की सत्ता और इस तरह के विपक्ष के बीच है। इस तरह की तानाशाही का मुकाबला चुनाव के जरिए नहीं किया जा सकता। क्योंकि चुनाव में तो तब हराया जा सकता है जब वाकई चुनाव हो। तानाशाही से तो वैसे ही लड़ना पड़ता है जैसे आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी कांग्रेस और क्रांतिकारी लड़ा करते थे। जनता के पास अब यह सोचने का विकल्प नहीं बचा है कि सत्ताधारी पार्टी को हराकर विपक्ष सत्ता में आ जाएगा, इससे हमें क्या लेना देना? यह सत्ता परिवर्तन के संघर्ष का पुराना समय नहीं है। विपक्ष अगर ज्यादा कुचला जाएगा तो हम बराबर देखते हैं कि विपक्ष के बहुत से नेता सत्ता पक्ष से मिल जाते हैं। विपक्ष के नेताओं का यह पलायन विपक्ष के नेताओं के संकट को दूर कर देता है। लेकिन जनता का संकट दूर नहीं करता। लोकतंत्र का अर्थ है- जनता अपने मन का राजा चुन सके। जिस दिन तानाशाह विपक्ष को कुचल कर इस विकल्प की हत्या कर देता है, उस दिन जनता फिर से प्रजा बन जाती है। अपने मन का शासक चुनने का उसका अधिकार समाप्त हो जाता है। विपक्ष की समाप्ति के साथ ही सत्ताधारी व्यक्ति के ऊपर नैतिक और राजनीतिक दबाव बनाने की उसकी ताकत भी समाप्त हो जाती है।
तब वह सरकार से सवाल नहीं पूछ पाती। रोजगार, स्वास्थ्य, धर्म की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी, शोषण का विरोध, न्याय का अधिकार, समानता का अधिकार, यह सब चले जाते हैं। वह गुलामी में आ जाती है। उसके पास तानाशाह का जयकारा लगाने या फिर दंडित किए जाने का ही विकल्प बचता है। भारत लगभग इसी अवस्था की दहलीज पर पहुंच चुका है। 
ऐसे में राहुल गांधी पहले, आखिरी और भरोसेमंद विकल्प हैं। अगर राहुल गांधी को सार्वजनिक जीवन से हटा दिया जाता है तो निश्चित तौर पर व्यक्तिगत रूप से उन्हें कुछ हानि होगी, लेकिन यह नुकसान भारत के 130 करोड़ लोगों को होने वाले नुकसान की तुलना में कुछ भी नहीं होगा। राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के लिए लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं, अगर उन्हें प्रधानमंत्री बनने का इतना चस्का होता तो वे अब तक 10 साल के भूतपूर्व प्रधानमंत्री हो चुके होते। अगर सत्ता पाना ही उनके लिए एकमात्र लक्ष्य होता तो वह बाकी बहुत से नेताओं की तरह सत्ताधारी दल से समझौता कर लेते। अगर उन्हें अपनी निजी संपत्ति बचानी होती तो विपक्ष के कई दूसरे नेताओं की तरह वह भी खामोश हो जाते। अगर उन्हें जेल का डर होता तो वे विदेश में जाकर बस जाते। और सबसे अच्छा विकल्प तो उनके पास यह होता कि वे राजनीति से संन्यास ले लेते और शांति से यहीं बैठकर लोकतंत्र की अंतिम यात्रा का नजारा देखते।
लेकिन राहुल गांधी ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं। उनके अंदर नेहरू, इंदिरा और राजीव का खून है। एक ऐसा खून जो जीते जी हिंदुस्तान की खिदमत करता है और मरते वक्त भी देश के लिए शहीद होता है। उनकी अंतरात्मा में महात्मा गांधी का वास है, जो हमेशा प्रेरित करती है कि डरो मत। सिर्फ अपने बारे में मत सोचो, बड़ी सी बड़ी ताकत के खिलाफ कमजोर से कमजोर आदमी को बराबरी से खड़ा करने के बारे में सोचो। और एक बराबरी भरी दुनिया की रचना करो। उनकी राजनीति और उनका खानदान, उन्हें समझौता करना नहीं, संघर्ष करना सिखाता है। षड्यंत्र करना नहीं, सेवा करना सिखाता है। सत्ता हथियाना नहीं, सबको शक्तिशाली बनाना सिखाता है।
राहुल गांधी इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी भी जन संघर्ष के लिए एक तपस्वी नेता की आवश्यकता पड़ती है। दैवयोग से इस संघर्ष की घड़ी में देश की 130 करोड़ जनता को राहुल गांधी के रूप में वह नेता मिला हुआ है। अगर हमने राहुल गांधी के रूप में एक बहुत बड़ी लोकतांत्रिक संभावना को यूं ही जाया हो जाने दिया तो पता नहीं हिंदुस्तान को संगठित करने और उसका नेतृत्व करने के लिए नया नेता पाने में हमें कितने वर्ष लग जाएं। इसीलिए है
यह समय राहुल की फिक्र करने का नहीं है, बल्कि अपनी फिक्र करने का है। अगर हम राहुल गांधी के साथ खड़े होते हैं तो हम उनको नहीं, खुद को और अपने लोकतंत्र को ताकतवर बनाएंगे। और लाखों वीरों की शहादत से जो आजादी हमारे पुरखों ने प्राप्त की थी उसे कायम रख पाएंगे। 
फैसला आपका है। वर्तमान और भविष्य भी आपका दांव पर लगा है।

Saturday, January 28, 2023

अडानी पर आई रिपोर्ट

AajTak, ABP & NDTV देश के तीन बड़े चैनलों की वेबसाइट को एक घंटे से खंगाल रहा हूं लेकिन हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट पर एक लाइन नहीं लिखी या दिखाई है किसी ने।
अब आपको आसान भाषा में इस रिपोर्ट का सार बता देता हूं। हिन्डेनबर्ग नाम की मीडिया रिसर्च सेंटर ने अडानी ग्रुप के बारे में एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें कहा गया है कि अडानी ग्रुप ने विदेशों (टैक्स हैवेन कंट्रीज) में सैकड़ों फर्जी कंपनियां बनाई हुई हैं। जिनको गौतम अडानी के भाई और रिश्तेदारों द्वारा चलाया जा रहा है। इन कंपनियों का पैसा भारत की अडानी ग्रुप कंपनियों के शेयर में लगाया जाता है, जिससे इन शेयरों की कीमत में उछाल आता है, जबकि इनकी असली कीमत मार्केट रेट के मुकाबले बहुत कम होती है। जब धीरे धीरे ये शेयर अपनी असली कीमत की तरफ बढ़ेंगे तो शेयर होल्डर्स को 85% तक का नुकसान हो सकता है। इन्हीं शेयरों को गिरवी रखकर अडानी ग्रुप ने बैंकों से भी लोन ले रखा है। जब इन शेयरों की कीमत गिरेगी तो बैंकों के लोन डूब जाने की स्थिति आ जायेगी, जिसकी वजह से भारत की अर्थव्यवस्था और शेयर मार्केट धड़ाम से गिरेंगे।
ये मनी लांड्रिंग, शेयर के रेट्स को मैनूपुलेट और अकाउंटिंग फ्रॉड के जरिए किया जा रहा है। ये रिपोर्ट दो साल की रिसर्च के बाद बनाई गई है जिसकी जानकारी कंपनी में काम कर चुके कई सीनियर अधिकारियों ने भी दी है।
अडानी ग्रुप ने इसका जवाब देते हुए एक पत्र जारी किया है। लेकिन रिपोर्ट के 88 में से एक भी सवाल का जवाब नहीं दिया।
अब इस रिपोर्ट का असर क्या हुआ? तो इसका नतीजा ये हुआ कि अडानी ग्रुप को 50000 करोड़ का नुकसान एक दिन में हुआ। इनका मार्केट कैप 2.37 लाख करोड़ का कम हुआ। जो अडानी कल तक दुनियां के दूसरे नंबर के अमीर आदमी थे वो आज सातवें स्थान पर पहुंच गए हैं।
रिपोर्ट के अनुसार अडानी ग्रुप के पास लगभग 120 बिलियन डॉलर की संपत्ति है जिसमें से 100 बिलियन डॉलर तो पिछले 3 सालों में कमाए हैं, जिस समय कोविड का समय था और पूरी दुनियां की अर्थ व्यवस्था खराब थी। खासकर भारत में लोगों की हालत खस्ता थी, बड़ी बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां सैकड़ों लोगों को नौकरी से निकाल रही थीं, तब इनकी संपत्ति 20 से बढ़कर 120 बिलियन डालर की हो गई। अडानी ग्रुप की 7 कंपनियां SEBI में लिस्टेड हैं, इनके शेयरों में पिछले 3 साल में 819% की बृद्धि हुई है। Hindanburg ने इसी उछाल के बाद रिसर्च चालू की, जिसमें पाया गया कि इसके शेयरों की ओवर वैल्यूएशन की गई है। जिसमें 85% तक डाउन स्लाइड (रिस्क) है।
इसको कॉरपोरेट हिस्ट्री का सबसे बड़ा घोटाला बताया जा रहा है। गौतम अडानी के भाई राजेश अडानी UAE, मॉरीसस जैसे देशों में रजिस्टर 38 शेल कंपनियों का नेटवर्क देखते हैं जिनका ना कोई कारोबार है, न ठीक से पता और ना ही कोई ऑनलाइन प्रेजेंस फिर भी इन्होंने भारत की अडानी ग्रुप की कंपनियों के शेयरों में बिलियन डॉलर इन्वेस्ट किए हुए हैं। ऐसे ही इनके दूसरे भाई विनोद अडानी 13 कंपनियों को देखते हैं जिनकी वेबसाइट एक ही दिन में बनाई गई। इन वेबसाइट पर न कोई कारोबार का नाम लिखा है न किसी कर्मचारी की डिटेल, रिपोर्ट के अनुसार शायद इनका प्रयोग स्टॉक पार्किंग और मैनूप्यूलेशन के लिए होता है। 
इस पूरे मामले में अडानी ग्रुप पर टैक्स चोरी, मनी लांड्रिंग और ब्लैक मनी के कारोबार और आम शेयर होल्डर्स को बेवकूफ बनाने की बात कही गई है। 
अगर आप भी अडानी की बैलेंसशीट देखें तो पता चलता है कि इन्होंने बैंकों से कितना कर्ज ले रखा है। जिस दिन इन ओवर वैल्यू शेयर्स की कीमत गिरेगी उस दिन बैंकों से लेकर आम निवेशकों तक का पैसा डूबने का खतरा होगा।
अब सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि सरकार इस पूरे मामले पर चुप क्यों है? वो संजय राउत से लेकर मनीष सिसोदिया सहित हर विरोधी के ऊपर ED के छापे मरवाती है लेकिन अभी उसकी कान पर जूं क्यों नहीं रेंग रहा है? इसका सीधा सा जवाब है कि मोदी सरकार और अडानी का एलायंस। पहले अडानी ने मोदी को हेलीकॉप्टर से लेकर टीवी चैनल तक खरीद कर दिए फिर पैसे से लेकर प्रचार तक सब पर खूब पैसा लुटाया। उसके बाद वही मोदी जी अडानी को जनता का पैसा लुटा रहे हैं। एयरपोर्ट, बंदरगाह, रेलवे स्टेशन सहित सब सरकारी संपत्तियों को अडानी को बेचा जा रहा है।  अडानी ग्रुप को दुनियां का दूसरा और भारत का पहला सबसे अमीर आदमी बनाने में सरकार का बड़ा हाथ है जिसने अडानी को सैकड़ों एकड़ जमीनें 1-1 रुपए में दिया।

Saturday, January 21, 2023

कुश्ती में होते बवाल पर कमेंट

इस समय जो मामला पूरी तरह से मीडिया में छाया हुआ है वो है भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष ब्रज भूषण सिंह पर लगे यौन शौषण के आरोप। क्योंकि ब्रज भूषण सिंह बीजेपी के सांसद हैं इसलिए हमारे साथी एकदम से हमला करने टूट पड़े। लेकिन हर बात में जल्दबाजी करके एकदम से नहीं टूट पड़ना चाहिए।
इस पूरे मुद्दे पर जो खिलाड़ी खुलकर सामने आए हैं वो है पूर्व फोगाट परिवार। मेरे दो सवाल हैं कि क्या गीता बबिता या विनेश फोगाट जैसी बड़ी खिलाड़ियों के साथ कोई ऐसे हरकत कर सकता है जब मीडिया से लेकर प्रधानमंत्री तक उनकी अच्छी पहुंच है?
दूसरा सवाल ये है कि ये मीडिया जो बिना अमित शाह के ऑर्डर के कोई खबर नहीं चलाता वो ब्रजभूषण पर लगातार कवरेज क्यों कर रहा?
इसके मुझे जो दो तीन कारण समझ आते हैं वो ये कि पहली बात तो कबड्डी, कुश्ती जैसे खेलों में हरियाणा की लॉबी का दबदबा कायम रहता है, इसी कारण से वहां के खिलाड़ियों को ज्यादा आगे बढ़ाया जाता है। पहले हुड्डा (कांग्रेस नेता) का परिवार इसमें दबदबा रखता था, अब महावीर फोगाट जिन्होंने आमिर खान से फिल्म बनवा के फेम पा लिया। और वहां खूब नारा भी चलता है जाट vs ऑल।
एक बृजभूषण सिंह यूपी के हैं दूसरा जाट नहीं हैं इसलिए उनको लगातार टारगेट करके ये लोग हरियाणा का अध्यक्ष बनवाना चाहते हैं।
दूसरा ब्रजभूषण सिंह बाबा रामदेव के प्रोडक्ट्स का लगातार बहिष्कार कर रहे हैं, बाबा रामदेव हरियाणा के हैं तो इसको पूरी हवा भी वही दे रहे हैं।
हालांकि मैं अभी भी ब्रजभूषण का समर्थक नहीं हूं और ना उनकी बात से सहमत हूं कि ये सब कांग्रेस करवा रही। क्योंकि कांग्रेस नेताओं को तो बजरंग पूनिया ने ही साथ आने से रोक दिया। दूसरी बात महावीर फोगाट और बबिता फोगाट तो खुद बीजेपी के नेता हैं। उनकी पहुंच सीधे मोदी जी तक है। इसलिए इसका तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण लगता है ब्रजभूषण सिंह का बीजेपी की लाइन से हटकर चलना। भले पार्टी कुछ कहे उनको जो सही लगता है वो वही करते हैं, इसलिए बीजेपी भी इस पूरे मुद्दे पर साइलेंट सपोर्ट कर रही है।
अब विनेश फोगाट के बाद जो सबसे ज्यादा विरोध करने वाले खिलाड़ी हैं वो हैं बजरंग पूनिया। जिनको आगे करने के लिए हरियाणा लॉबी ने पूर्व में यूपी के नरसिंह यादव को पीछे किया था। ये जो खिलाड़ी एक दो मेडल जीत चुके हैं वो अब ना तो कोई ट्रेनिंग लेना चाहते हैं और ना ही नेशनल कंपटीशन में हिस्सा। इन सबको अपने अपने फेवरेट पर्सनल कोच चाहिए वो भी सरकारी खर्चे पर। बृजभूषण ने इन मुद्दों को खूब उठाया है इस वजह से भी ये खिलाड़ी अपना बदला लेना चाहते हैं।
जिस तरह की ब्रजभूषण सिंह की पृष्ठभूमि है उसको देखकर तो यही कहा जा सकता है कि हो सकता है वो खिलाड़ियों से रुड पेश आए होंगे लेकिन यौन शौषण जैसे आरोप अगर हैं तो उनकी जांच हो, अगर दोषी पाए जाएं तो उनको सजा हो। लेकिन अगर ऐसा न हुआ तो आरोप लगाने वालों पर कार्यवाई हो। बृजभूषण तो यहां तक कह रहे हैं कि अगर मैं दोषी निकला तो खुद फांसी पर चढ़ जाऊंगा।
और सवाल तो ये भी हैं कि जब इतने साल से ये सब चल रहा है तो खिलाड़ी बिना किसी सबूत, बिना किसी एफआईआर के सीधे धरने पे बैठ गए।

Wednesday, November 30, 2022

रवीश कुमार के नाम पत्र

Dear Ravish Kumar जी,
मैं 2012 तक एक साधारण सा सिम्पल सोचने वाला लड़का हुआ करता था। जो गर्व से कहो हम हिंदू हैं लिखता और आरक्षण के खिलाफ बोला करता था।
एक बार कहीं से प्रवासियों पर बनाई गई "रवीश की रिपोर्ट देख ली", तो एक प्रवासी होने के नाते आपकी बात अच्छी लग गई। दिलचस्पी बढ़ी तो फॉलो करने लगा। फिर कस्बा (आपका ब्लॉग) पढ़ने लगा, उससे मेरी राजनीतिक, साहित्यिक और वैचारिक सोच थोड़ी बढ़ने लगी। 
और कहते हैं कि अगर आप पढ़ाई ना करो तो कोई दिक्कत ही नहीं है सब ठीक ठाक चलता रहता है। दिक्कत शुरू होती है जब आप किताबें पढ़ कर सोचना और तर्क देना शुरू कर दें। आपसे आदत पड़ी तो उसके बाद तो अपने स्तर से खूब पढ़ा और लड़ा।
10 साल तक आपका प्राइम टाइम लगातार देखा। जब सरकार ने एनडीटीवी पर एक दिन का बैन लगाया तब से लेकर जब आपको नोटिस भेजे जाते थे, या सोसल मीडिया पर गालियां मिलीं हर जगह आपके साथ स्टैंड किया।
ब्लॉग, पोस्ट, लप्रेक कुछ कविता या शायरी लिखना हुआ या किसी अनजान को ये खुले पत्र लिखना भी आपसे सीखा था तो वही पत्र आपके नाम लिख रहा हूं।
ये लिखते हुए थोड़ा इमोशनल हूं क्योंकि मैंने एक उम्र को आपको देखते, सुनते और पढ़ते हुए जिया है। जिंदगी के कई फैसले आपको सुन या पढकर बनी हुई सोच से लिए होंगे।

एक इंटरव्यू में आपसे किसी ने पूछा कि आपने कभी एनडीटीवी क्यों नहीं छोड़ा? पानी बहते रहना चाहिए नहीं तो दुर्गंध आने लगती है। तो आपने कहा कि जब भाग दौड़ भरी जिंदगी में आपको शांति चाहिए तो वो ठहरे हुए पानी के पास ही मिलेगी। इसलिए मैंने बड़े बड़े पैकेज पर भी एनडीटीवी नहीं छोड़ा। प्रणब राय ने आपको हर तरह की छूट दी। ये बात मुझे एनडीटीवी से जोड़े रखती थी। इंडियन मीडिया का एक मात्र एप है मेरे फोन में जिसके इरिटेटिंग एलर्ट रिंगटोन के बावजूद भी रखा था, आज वो भी डिलीट कर रहा हूं।
अब जब से अडानी ने एनडीटीवी के शेयर खरीदे थे तब से ही हमको आपके वहां से जाने का अंदाजा हम सबको था। हमारे लिए मीडिया मतलब एनडीटीवी और एनडीटीवी मतलब रवीश था, अब आप जा रहे हैं तो हमारा मीडिया को देखना भी लगभग खतम ही हो रहा है।
एक छोटी सी सलाह है कि आप अब एंकरिंग में ऊबे हुए से लगते हैं। और खूब तो पत्रकारिता से लड़ चुके हैं इसलिए अब राजनीति में आ जाइए क्योंकि कोई और चैनल तो आपको एफोर्ड नहीं कर सकता है।
भविष्य के लिए शुभकामनाएं।

आपका शिष्य:
कमलेश कुमार 

Sunday, November 20, 2022

आम आदमी पार्टी पर बहुत जरुरी टिप्पणी

आजकल बहुत से दोस्त पूछते हैं कि मेरा आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल से मन क्यों उचटता जा रहा है? 
क्या मैंने कांग्रेस को ही सबसे अच्छी पार्टी और राहुल गाँधी को सबसे बढ़िया नेता मान लिया है?
जवाब है बिलकुल नहीं. जरुरत पड़ने पर मैं अपने हिसाब से आलोचना भी कर लेता हूँ. बस गाली गलौच का मेरा नेचर नहीं तो वो नहीं देखने को मिलेगा. यहाँ तक कि केजरीवाल के बारे में एक भी भला बुरा शब्द नहीं कहा और न कभी कहना चाहूंगा क्योंकि उस आदमी को मैंने पसंद किया है और अपना नेता मानता था/शायद अभी मानता हूँ पता नहीं, क्योंकि अभी भी उनको सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
केवल बात ये बता रहा था कि अब मेरा मन क्यों हटने लगा? मेरी अपनी अपनी राजनितिक समझ के साथ साथ अर्थशास्त्र और कानून पर भी राय और जानकारी है, इसलिए राहुल गाँधी कभी नेशनल हेराल्ड केश और संजय राउत पात्र चॉल घोटाले में निराधार फंसाये गए, ये नहीं कह सकता. राहुल गाँधी वाले में कंपनी और डोनेशन/ट्रस्ट कानूनों की अनदेखी हुई और कई गड़बड़ किए गए जबकि संजय राउत ने तो सैकड़ों करोड़ सीधे तौर पर डकार लिए. ईडी, इन्कम टैक्स या कोई भी जांच एजेंसी बिना किसी गड़बड़ के किसी को नहीं फंसा सकती है. हाँ ये कह सकते हैं कि किसी ने थोड़ा किया होगा तो ज्यादा में फंसा दिया. या विपक्ष को पकड़ती है और बीजेपी वालों को नहीं छूती. मायावती, मुलायम सिंह, जयललिता या जगन रेड्डी पर कांग्रेस ने जब जांच बिठाई थी तो भी सब एकदम झूठ तो नहीं था न अब है.
अरविन्द केजरीवाल जी राजनीति बदलने आये थे. पहले उन पर राज्यसभा के टिकट बेचने के आरोप गुप्ता बंधुओं के बाद से ही लगने लगे थे, हालाँकि दिल्ली विधानसभा चुनावों में भी ऐसे आरोप लगे, और अब MCD चुनावों में भी यही आरोप लग रहे हैं. एक एक पार्षद एक करोड़ की टिकट ले रहा, और ये बात मैं किसी टिकट न मिलने वाले के आरोप पर नहीं कह रहा मेरी अपनी पहचान के कुछ लोगों ने बताई है ये बात.
मनीष सिसोदिया या उनके करीबियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे, सत्येंद्र जैन पर भ्रष्टाचार के आरोप आज से नहीं कई सालों से लग रहे, सुकेश चंद्रशेखर नाम का ठग केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को सैकड़ो करोड़ रूपये देने का आरोप लगातार लगा रहा है, मैं अमानतुल्लाह का नाम इसमें नहीं लूंगा क्योंकि उनके खिलाफ तो पुलिस ही लाइव झूठी साबित हो गई थी. और पंजाब में जिस मंत्री को हटाया भ्रष्टाचार को लेकर उसमें भगवंत मान की तारीफ भी करता हूँ. लेकिन दूसरी पार्टियों पर भी आरोप तो इसी तरह के लगते हैं न? अगर इसके बावजूद मैं आपको बाकी सबसे अलग मानता रहूं तो मतलब मैं भी भक्त ही हो जाऊँगा जो कहता है मेरे प्रभु पर लगा हर आरोप गलत है.
अभी मैं ना उनके हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की विचारधारा पर सवाल कर रहा और न ही उनके विकास मॉडल पर सवाल करूँगा कि कितना पैसा विकास में लगाया और कितना विज्ञापन में खर्च किया. मैंने जब देखा था दिल्ली में तब काफी काम हुए थे, उसके बाद से बहुत निजी अनुभव नहीं लेकिन फिर भी मानता हूं कि शिक्षा का एक मॉडल तैयार किया है, जो पंजाब में होना बाकी है. मैं कानून व्यवस्था पर आपसे सवाल नहीं करूँगा क्योंकि दिल्ली में पुलिस आपके पास नहीं है (हालाँकि आप प्राइवेट वालिंटियर लगाकर सुरक्षा के वादे करते थे) और पंजाब में आपको बहुत कम समय हुआ है, जहां कानून व्यवस्था बहुत खराब है। इसलिए अभी जल्दबाजी में नशे के कारोबार पर हुई कार्यवाही पर नहीं पूछ रहा।
मैं केवल वो सवाल उठा रहा हूँ कि जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ आप लोग राजनीति में आये, वही अब खुद करने लगे. अगर भ्रष्टाचार के इन सवालों को कोई ऐसे ही टाल देता और बेबुनियाद आरोप बता देता है तो भाई साहब आप क्या करते थे शुरू में? किसी की डायरी में किसी का नाम हो, किसी सोसल मीडिया की वायरल हुई लिस्ट को स्विस बैंक का खाता धारक बता देना, कितने ऐसे घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोप इन्होने लगाए और कोर्ट में माफ़ी मांगी? कितने घोटालों के केश बंद हुए और कितने नेताओं को इनके आरोपों पर सजा मिली या मुकदमें अदालत में टिके। अगर तब आप पर भरोसा किया लोगों ने तो जब आप पर वही आरोप लगेंगे तो कैसे झूठे आरोप मान लिए जाए?

Sunday, October 23, 2022

ऋषि सुनक V/S पेनी मॉर्डेन्ट/बोरिस जॉनसन?

गुरुवार को ब्रिटेन की प्रधानमंत्री लिज़ ट्रस के इस्तीफ़ा देने के बाद दोबारा सुनक को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद की रेस में बताया जा रहा है. इस बीच वहां के सियासी गलियारों में इस बात की चर्चा तेज़ है कि पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भी पद पर वापसी कर सकते हैं. हालांकि जेरेमी हंट का भी नाम सामने आया था, लेकिन उन्होंने लीडरशिप की दौड़ में शामिल होने से इनकार कर दिया.
इस बीच पेनी मॉरडॉन्ट ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद की रेस के लिए आधिकारिक तौर पर अपनी दावेदारी पेश कर दी है. वो पिछली दौड़ में भी शामिल हुई थीं, लेकिन नाकाम रही थीं.
पार्टी में ऐसे सांसद हैं जो बोरिस जॉनसन को वापस लाना चाहते हैं, कुछ दूसरे सांसदों का कहना है कि अगर बोरिस लौटते हैं तो वो इस्तीफ़ा दे देंगे.
42 साल के ऋषि सुनक इस साल जुलाई तक देश के वित्त मंत्री थे. उनके इस्तीफ़े के बाद ही पार्टी में उस समय के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के ख़िलाफ़ पार्टी में विद्रोह शुरू हुआ था और कई मंत्रियों ने अपने पदों से इस्तीफ़ा दे दिया था.
उनके इस्तीफे के बाद बोरिस जॉनसन को भी प्रधानमंत्री पद से हटना पड़ा था. कई हफ़्तों तक चले लीडरशिप की दौड़ में पार्टी सांसदों ने ऋषि सुनक और लीज़ ट्रस को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना.
पार्टी के 1 लाख 60 हज़ार से अधिक सदस्यों को इन दोनों में से एक को चुनना था. लिज़ ट्रस को ज़्यादा सदस्यों का समर्थन मिला और वो प्रधानमंत्री बन गईं, और सुनक हार गए.
लिज़ ट्रस ने टैक्स कम करने और गैस के दाम को स्थिर करने जैसे कई वादे किए थे जिनके बारे में ऋषि सुनक ने आगाह किया था कि ये क़दम देश को एक बड़े आर्थिक संकट में डाल देंगे.
लिज़ ट्रस और ऋषि सुनक के बीच मुक़ाबले में दो बातें खुलकर सामने आई थीं. ऋषि सुनक को पार्टी के अधिकतर सांसदों का समर्थन हासिल था और पार्टी सदस्यों की युवा पीढ़ी उनके साथ थी. लेकिन पार्टी के अंदर पुराने कंज़र्वेटिव विचारधारा के लोग बहुमत में हैं जिन्होंने ऋषि सुनक के ऊपर लीज़ ट्रस को तरजीह दी थी."
साउथम्पटन से ऋषि सुनक को जानने वाले नरेश सोनचटला कहते हैं कि उन्हें विश्वास है कि ऋषि सुनक इस बार फिर प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे.
जहाँ तक मुझे मालूम है ऋषि को कैबिनेट का पूरा समर्थन हासिल है, देश उनके साथ है. सट्टेबाज़ भी ऋषि सुनक के प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी कर रहे हैं.

बोरिस की वापसी मुमकिन?
हालांकि अभी तक किसी नेता ने प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल होने की घोषणा नहीं की है, लेकिन उम्मीदवारों को सोमवार दोपहर तक अपने नाम देने होंगे.
माना जा रहा है कि ऋषि सुनक और बोरिस जॉनसन मुख्य दावेदार बन कर उभरेंगे. ख़बरें ये आ रही हैं कि बोरिस जॉनसन, जो अपनी छुट्टी गुज़ारने के लिए विदेश में थे, अब ब्रिटेन वापस आ रहे हैं.
ब्रिटेन के राजनीति विश्लेषकों का मानना है कि फ़िलहाल दोनों नेता इस बात का अंदाज़ा लगाने की कोशिश करेंगे कि उन्हें कितने सांसदों का समर्थन हासिल है.

लेकिन क्या उनके पास आम चुनाव जिताने की अपील है? उनके आलोचकों द्वारा हो सकता है एक बार फिर 'स्टॉप ऋषि' अभियान चलाया जाए".
पार्टी के नियमों के मुताबिक़, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के अगले उम्मीदवार को लीडरशिप की रेस में शामिल होने के लिए 357 में से कम से कम 100 सांसदों का समर्थन हासिल करने की ज़रूरत होगी.
इसका मतलब है कि अधिकतम तीन उम्मीदवार खड़े हो सकते हैं. सांसदों के बीच पहले मतदान होगा और तीन उम्मीदवारों के होने पर सबसे कम वोट वाले व्यक्ति को हटा दिया जाएगा.

इसके बाद अगर दो उम्मीदवार बच जाएं और किसी भी सूरत में दूसरे दौर के वोटिंग की ज़रूरत पड़ती है तो सांसद दोनों उम्मीदवार में अपनी वरीयता के ज़रिए अपना मत दे सकते हैं.
इस दौर के बाद भी अगर दोनों उम्मीदवार को एक समान मत मिलते हैं तो अंतिम निर्णय पार्टी के सभी सदस्यों के ऑनलाइन वोट के माध्यम से होगा. अगस्त और
सितंबर में कराई गई लीडरशिप पर वोटिंग कई हफ़्तों तक क्यों चली और इस बार एक हफ्ते में ही अगला प्रधानमंत्री कैसे चुन लिया जाएगा?
इस बार किसी भी उम्मीदवार को प्रधानमंत्री की रेस में शामिल होने के लिए कम से कम 100 सांसदों का समर्थन ज़रूरी है. पिछली बार ये पैमाना 30 सांसदों के समर्थन का था. ऐसे में ख़ुद ही उम्मीदवारों की संख्या तीन से ज़्यादा नहीं हो पाएगी और इसलिए अगला प्रधानमंत्री चुनने में वक़्त पिछली बार से कम लगेगा. यदि नामांकन बंद होने पर सोमवार को केवल एक उम्मीदवार बचता है, तो उसे विजेता और अगला प्रधान मंत्री घोषित किया जाएगा.

राहुल गांधी बनाम कॉरपोरेट

*साल था 2010। उड़ीसा में "नियमागिरी" के पहाड़। जहां सरकार ने वेदांता ग्रुप को बॉक्साइट खनन करने के लिए जमीन दे दी। आदिवासियों ने व...